निष्कामता में ही आत्मियता

हम संसारिक निष्कामता से कोसों दूर रहते है । सकाम हुये बिन कुछ करते अब हमसे नही होता । जब तक कामना है तब तक जिससे भी राग होगा , आसक्ति होगी वह कामना के वश होगी । अगर किसी दुकान पर हमारी जरूरत की वस्तु नही मिलती तो हम नही जाते । इसी तरह अगर हम मन्दिर से या भगवत् धाम से लौटे तो संसार कहेगा क्यों गए थे , अर्थात् हमें वहाँ भी कारण चाहिये , अकारण कोई भगवत् सामिप्यता भी नही चाहता और जब तक कारण है कोई कामना है , चाहत है , वासना है । जहाँ भी कामना है हमारी वहाँ हमारी आत्मियता नहीँ , जीवन में जो लोग अध्ययन की अपेक्षा में किसी संस्थान गए वह जीवन के उत्तरार्ध में भी जाते हो ऐसा नही देखा जाता , जहाँ कामना है वहाँ अपनापन नही । वहाँ जुड़ने की वजह है , कारण है बस , आत्मियता नहीँ । माँ अबोध शिशु से कुछ नहीँ चाहती , वह नहीँ चाहती कि यह बड़ा होकर मुझे भी नहलाये , सेवा करें । चाहे तो कामना होगी और आत्मियता का अभाव होगा । जब तक वह नहीँ चाहेगी मधुर सम्बन्ध रहेगा , चाहेगी भी तो पुत्र का विकास चाहेगी , उसका हित ही अपना हित समझेगी । अतः जब तक कामना अपने लिये है तब तक प्रेम है ही नहीँ । जो भी संसार में अपना है उससे हम कुछ नही चाहते , कभी नहीँ मांगते , बल्कि उसकी सेवा के लिये व्याकुल रहते है , कुछ करना चाहते है वहाँ । हम सबने सुना ही है न आधुनिकता में कि प्रेमी प्रेमिका हेतु तारे तोड़ लाने को भी आतुर रहता है यह मुहावरा यह कहता है कि अपने प्रियतम हेतु असंभवता और असमर्थता को भी पार कर जाने की चाहत होती है । अर्थात् स्वार्थ नही यहाँ , प्रेमास्पद के सुख की तलाश में ही सर्वस्व अर्पण की व्याकुलता है । भगवान के संग प्रीत और भी सुंदर होती है अपितु सर्व उत्कृष्टता पर होती है क्योंकि वह सर्व रूप परम् है , सारतत्व है । ऐश्वर्यता और भगवत्ता वह प्रेमियों हेतु छोड़ भी दे तो भी वह माधुर्य रस सार सिंधु है ही । उत्कृष्ट वही है , प्रेम हो , सेवा हो , अथवा त्याग ही । क्योंकि त्याग में वह भगवत्ता न त्यागे तो जीव का भगवत्प्रेम सम्बन्ध सिद्ध ही न हो । भगवान से भगवान हो कर प्रेम कैसे होगा , दो भगवान हो नही सकते । अतः कुछ जीव निर्मल होने की चेष्टा करता है और बहुत सी असहज और विभुता , वैभवता त्याग जैसा प्रेमी जीव भावना करें उस अनुरूप प्रकट होते है , अब भावना पूर्ण सौंदर्य दर्शन की हो तो नेत्र भी उतने विकसित हो और प्यास भी उतनी ही गहरी हो । वरन् सामान्य हम जैसों हेतु सहजता से वह थिर रूप भी है ही । भगवान का प्रेम ऐसा है कि वह अपने प्रेमास्पद यानी (जीव) के लिये जड़ तक हो जाते है , स्थिर हो जाते है । पर यह जड़त्व और स्थिरता भी प्रेमी हेतु है वहाँ वह पूर्ण प्रकट है जो उन्हें चल और चेतन देखना चाहेगा उसके लिये वह उसी रूप दर्शन होंगे भी । जैसी भावना वैसा उनका संग । वह जो भी यह सब करते है उसका कारण है उनकी आत्मियता वैसे वह निर्विकल्प – समत्व – निष्काम है । परन्तु प्रेम की आह्लादिनी में पूर्ण रूप तरबतर भी वही है अतः प्रेम वश अपनत्व उनका है जिसमें कामना नही है अपितु सेवा भाव ही है । उन्होंने हमें बनाया पर कामना से नहीँ , यह उनके रस का विस्तार है गौ में दूध है पर अगर गौ को दूध स्वाद लेना हो तो वह उससे दुह कर उसे पिलाने पर ही तृप्त करेगा जबकि वह था उसी मेँ , और उसी की वस्तु भी है परन्तु तृप्ति के लिये दुहना और पुनः उसे पिलाना होगा । ऐसे ही भगवान की प्रीत का खेल है । वह व्याकुल रहते है कि कुछ करें हमारे हेतु जैसे माँ रहती है , इस हेतु वह हमें इच्छा शक्ति दिए है । सर्वरूप कर्ता वह हो कर भी यह इच्छा शक्ति जीव की भावना पर क्रियान्वित होती और इसी तरह संसार का विकास हो जाता है । जैसे माँ पुत्र को समर्थ करती अपने सेवा भाव – समर्पण और दूध आदि से वह चाहती कि पुत्र से सदा अनन्य प्रियता रहें परन्तु पुत्र माँ का भविष्य में त्याग या दुरी करता है तो भी माँ उसके भावना की हो इस तरह रोकती नहीँ है । ऐसा ही यहाँ , परन्तु जब जीव को भगवान की इस अनन्य प्रियता का कैसे भी पता चलता है तो वह लौट कर भगवान की दौड़ता है । भगवान संसारिक्तता का विकास जब तक ही करते है जब तक जीव की इच्छा या कामना है जैसे ही कामना भगवान हो जाते है अपनत्व पर लगा पर्दा हट जाता है जीव जान मान जाता है कि मेरे तो बस यहीं नित्य संगी है सदा से शेष सब बदलता रहा है बस फिर उसे संसारिकता से निष्काम होना होता है क्योंकि कोई भी कामना रहेगी तो भगवान पहले वह कामना ही सिद्ध करेगें यह उनका सेवा भाव ही अगर कामना न हो या कामना में भगवत् प्रीति हो तो उन्हें अपार आनन्द मिलता है जैसे छोड़ चूका पुत्र कभी माँ की उम्मीद छुट जाने पर माँ से मिल लिपट जावें ,वह व्यक्त तो नहीँ करेगी पर उसे अपार सुख होगा , कहेगी तू तेरा देश – काम छोड़ क्यों लौट आया तब भी उसके सुख का विचार करेगी । इससे तो अनन्त गुणा वात्सल्यता और प्रियता भगवान में है । संसार में माँ का वात्सल्य भगवान के वात्सल्य की ही छाया है । मूल में तो भगवत् सम्बन्ध ही हमारा है न अतः उस माँ को अधिक नेह और प्रीत है । तो संसार की कामना हटी निष्काम हुये हम कि भगवत्सम्बंध का पर्दा खुल जाएगा । माया योगमाया हो जायेगी । माया भी इच्छा पर निर्भर , जिसकी जितनी इच्छा उतनी ही माया में फंसा है । योगमाया भी इच्छा पर निर्भर जिसे जितना गहन मिलन भगवान चाहिये उतना उनकी और लें जाती है । भगवान के बाहर से उनके भीतर उतर जाना ही भगवत्प्रेम है । भगवान से ज्यादा उनके प्रेमी उन्हें जानते है क्योंकि उनके भीतर ही तो वास करते है । प्रेम आपके मन का अपहरण कर लेता है । भोगी का मन अपने बैंक अकाउंट या फेक्ट्री आदि में बसा । जो वस्तु अपनी होगी वहीँ मन होगा । भगवान का अपना मन भी हमारे पास उनके पास नही ,उन्हें हमसे प्रेम जो है , यह माया से योगमाया के पथिक जानते है , जो भावराज्य में रम चुके है । !!ॐ नमो नारायण !! डॉ योगानन्द गिरी