️ असुरों के गुरु शुक्राचार्यजी के 10 रहस्य


अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं। अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥ – शुक्राचार्य (शुक्र नीति) अर्थात कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं। शुक्राचार्य एक रहस्यमयी ऋषि हैं। उनके बारे में लोग सिर्फ इतना ही जानते हैं कि वे असुरों के गुरु थे। लेकिन हम आपको बताएंगे उनके बारे में कुछ अन्य तरह की रहस्यमी बातें जो शायद ही आप जानते होंगे। शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत, पुराण आदि ग्रंथों में अनेक कथाएं वर्णित है। देवताओं के अधिपति इन्द्र, गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट हैं। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन बने जिनके गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट हैं। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्‍वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मयदानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं। असुरों में कई महान शिव भक्त असुर हुए हैं। शुक्राचार्य उनमें से एक थे। आओ उनके बारे में जानते हैं दस रहस्य…
पहला रहस्य ऋषि भुगु के पुत्र थे शुक्राचार्य :महर्षि भृगु के पुत्र और भक्त प्रहल्लद के भानजे शुक्राचार्य। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान विष्णु से कर दिया था। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। माना जाता है कि उशना ही आगे चलकर शुक्राचार्य कहलाए। एक अन्य मान्यता अनुसार वे भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।
दूसरा रहस्य शुक्र नीति के प्रवर्तक :शुक्राचार्य महान ज्ञानी के साथ-साथ एक अच्छे नीतिकार भी थे। शुक्राचार्य की कही गई नीतियां आज भी बहुत महत्व रखती हैं। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है।
तीसरा रहस्य माता ख्याति :कहा जाता है कि दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। जम्बूद्वीप के इलावर्त (रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था।
चौथा रहस्य शुक्राचार्य को याद थी मृत को जिंदा करने की विद्या :इस विद्या के अविष्कार भगवान शंकर थे। ज्ञात हो कि गणेशजी का सिर काट कर हाथी का सिर लगा कर शिव ने गणेश को पुनः जीवित कर दिया था। भगवान शंकर ने ही दक्ष प्रजापति का शिरोच्छेदन कर वध कर दिया था और पुनः अज (बकरे) का सिर लगा कर उन्हें जीवन दान दे दिया। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। यह विद्या असुरों के गुरु शुक्राचार्य को याद थी। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी। कहते हैं कि महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है। महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय और गुरु द्रोणाचार्य महामृत्युंजय मंत्र के साधक और प्रयोगकर्ता थे। संजीवनी नामक एक जड़ी बूटी भी मिलती है जिसके प्रयोग से मृतक फिर से जी उठता है। मत्स्य पुराण अनुसार शुक्राचार्य ने आरंभ में अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।
पांचवां रहस्य एकाक्षता नाम :माना जाता है कि एक समय जब विष्णु अवतार त्रिविक्रम वामन ने ब्राह्मण बनकर राजा बालि से तीन पग धरती दान में मांगी तो उस वक्त शुक्राचार्य बलि को सचेत करने के उद्देश्य से जलपात्र की टोंटी में बैठ गए। जल में कोई व्याघात समझ कर उसे सींक से खोदकर निकालने के यत्न में इनकी आंख फूट गई। फिर आजीवन वे काने ही बने रहे। तब से इनका नाम एकाक्षता का द्योतक हो गया। दरअसल भगवान विष्णु ने वामनावतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे की पानी बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान ने बलि के कमंडल में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष यानी एक आंख वाला भी कहा जाता है।
छठा रहस्य शिव ने निगल लिया था शुक्राचार्य को :गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती गई और देवता असहाय हो गए। ऐसे में उन्होंने भगवान शंकर की शरण ली। शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान शंकर को बहुत क्रोध आया। क्रोधावश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया। इसके बाद शुक्राचार्य शिवजी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए।
सातवां रहस्य शुक्राचार्य की पुत्री की प्रसिद्ध कहानी :इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया। एक बार की बात है कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान शंकर को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकलकर दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, ‘रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।’ देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएं में धकेल दिया। देवयानी को कुएं में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहां पर आ पहुंचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुएं के निकट गए तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुएं से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, ‘हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूं। हे क्षत्रियश्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूं किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए।’ ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। देवयानी वहां से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनोन्वल करने लगे। बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शान्त हुआ और वे बोले, ‘हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रुष्ठ नहीं हूं किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूंगा।’ वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, ‘हे पुत्री! तुम जो कुछ भी मांगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूंगा।’ देवयानी बोली, ‘हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए।’ अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए। बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, ‘रे ययाति! तू स्त्री लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूं तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।’ उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, ‘हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है।’ तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, ‘अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।’ इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, ‘वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो।’ इस पर यदु बोला, ‘हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।’ ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की मांग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली। लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की मांग को स्वीकार कर लिया। पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, ‘तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूं। मैं तुझे शाप भी देता हूं कि तेरा वंश सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।’
आठवां रहस्य संगीतज्ञ और कवि थे शुक्राचार्य :शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
नौवां रहस्य शुक्राचार्य का शुक्राचार्य नाम कैसे पड़ा :कवि या भार्गव के नाम से प्रसिद्ध शुक्राचार्य का शुक्र नाम कैसे पड़ा इस संबंध में वामन पुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कथा अनुसार जब शुक्राचार्य को शंकर भगवान निगल जाते हैं तब शंकरजी के उदर में जाकर कवि (शुक्राचार्य) ने शंकर भगनान की स्तुति प्रारंभ कर दी जिससे प्रसन्न हो कर शिव ने उन को बाहर निकलने कि अनुमति दे दी। जब वे एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे लेकिन कोई छोर न मिलने पर वे पुनः शिव स्तुति करने लगे। तब भगवान शंकर ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पाकर भार्गव भगवान शंकर के शिश्न से निकल आए। तब से कवि शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।
दसवां रहस्य क्या शुक्राचार्य अरब चले गए थे? :इस बात में कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते। शुक्राचार्य को प्राचीन अरब के धर्म और संस्कृति का प्रवर्तक माना जाता है हालांकि इस पर विवाद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अरब को पहले पाताल लोक की संज्ञा दी गई थी। गुजरात के समुद्र के उस पार पाताल लोक होने की कथा पुराणों में मिलती है। गुजरात के समुद्री तट पर स्थित बेट द्वारका से 4 मील की दूरी पर मकरध्वज के साथ में हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है। अहिरावण ने भगवान श्रीराम-लक्ष्मण को इसी स्थान पर छिपाकर रखा था। जब हनुमानजी श्रीराम-लक्ष्मण को लेने के लिए आए, तब उनका मकरध्वज के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में हनुमानजी ने उसे परास्त कर उसी की पूंछ से उसे बांध दिया। उनकी स्मृति में यह मूर्ति स्थापित है। मकरध्वज हनुमानजी का पुत्र था। माना जाता है कि जब राजा बलि को पाताल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। दूसरी मान्यता अनुसार दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहां रहे। शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व/अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। अरब देशों का महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध के बारे में ‘हिस्ट्री ऑफ पर्शिया’ में उल्लेख मिलता हैं
।। ॐ नमो नारायण।।