शुकदेव मुनि
मुनिश्रेष्ठ शुकदेव जी महर्षि वेदव्यास जी के पुत्र थे। आपने प्रारंभिक अध्ययन अपने पिताश्री वेदव्यासजी से ही उनके आश्रम में किया। कालांतर में वेदाध्ययन के लए देवगुरु बृहस्पति जी के पास उनको भेजा गया, जहां उन्होंने वेदशास्त्र, इतिहास आदि का अध्ययन पूर्ण किया।
विद्याध्ययन के पश्चात आप पिताश्री के आश्रम में आकर रहने लगे। सांसारिक बंधन एवं जीवों के जन्म-मरण से आपका मन व्यथित रहने लगा। आप सांसारिक बातों से उदासीन रहने लगे। अपनी अप्रतिम प्रतिभा के कारण प्रारंभ से ही आप देवताओं एवं ऋषियों एवं मानव मात्र के श्रद्धापत्र हो गये। अपका गृहस्थाश्रम के प्रति विमोह देखकर व्यासजी चिंतित होने लगे, तथा विवाह बंधन में आबद्ध करने हेतु व्यास जी इन्हें समझाने एवं प्रेरित करने लगे। इस प्रसंग में पिता पुत्र के मध्य विचार विमर्श भी होता। व्यास जी जहां गृहस्थाश्रम से श्रेष्ठ कोई दूसरा धर्म नहीं मानते वहीं शुकदेव जी गृहस्थाश्रम के कष्ट गिनाते। व्यास जी शुकदेव को समझाते ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी तथा गृहस्थी सभी गृहस्थाश्रम से ही पैदा होते हैं। वेद और स्मृतियों के विधानानुसार भी गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है तथा तीनों अन्य आश्रम वालों का पोषणकर्ता भी गृहस्थाश्रम है, यहां तक कि देवता भी अपना पोषण गृहस्थाश्रम से ही पाते हैं। व्यास जी उन्हें समझाते कि मनुष्य के चार ऋण होते हैं। पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण और मनुष्य ऋण। इन ऋणों की मुक्ति गृहस्थाश्रम से ही संभव है। जहां वह माता-पिता की सेवा व भरण-पोषण कर पितृ ऋण से, यज्ञादि सम्पन्न कराकर देव ऋण से, वेदों का अध्ययन और तपस्या कर ऋषि ऋण से तथा दान, दया, सहायता आदि द्वारा मनुष्य ऋण से उऋण हो सकता है।
विभिन्न उदाहरण देकर व्यास जी जब शुकदेव जी को गृहस्थाश्रम के लिए तैयार नहीं कर सके तो उन्होंने शुकदेव जी को अपने यजमान मिथिलापुरी नरेश राजा जनक के पास धर्म और मोक्ष का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा। राजा जनक गृहस्थ होते हुए भी प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के पूर्ण और मुमुक्षु थे। सही नहीं वे शास्त्र मर्यादानुसार- रहकर गृहस्थी ही नहीं अपितु सुचारू रूप से राज्य संचालन भी करते थे। वे अपने को राजा नहीं बल्कि प्रजा का प्रतिनिधि मानते थे। उनमें न राजमद था न ही राज के प्रति लिप्सा। वे देह में रहकर भी विदेह कहलाते थे।
राजा जनक ने शुकदेव जी की अनेकानेक विधियों से परीक्षा ली और अन्त में राजा ने उनकी गृहस्थाश्रम की शंकओं का समाधान किया तथा यह भी बताया कि सभी आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। राजा के उपदेशों से शुकदेव मुनि की शंकओं का सामधान हो गया और वे अपने पिता के आश्रम में आ गये।
शुकदेव जी का विवाह वहिंषद जी, जो स्वर्ग में वभ्राज नाम के सुकर लोक में रहने वाले पितरों के मुखिया थे, की पुत्री पीवरी से हुआ। विवाह के समय शुकदेव जी 25 वर्ष के थे। गृहस्थाश्रम में रहकर भी शुकदेव जी योग मार्ग का अनुसरण करने लगे। उन्होंने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई जिसके श्रवण फल से सर्पदंश-मृत्यूपरांत भी परीक्षित को मोक्ष की प्राप्ति हुई।
पीवरी से शुकदेव जी के 12 महान तपस्वी पुत्र हुए जिनके नाम भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर, श्वेत कृष्ण, अरुण और श्याम, नील, धूम वादरि एवं उपमन्यु थे। जिनके गुरुकृत नाम क्रमश: भारद्वाज, पराशर(द्वितीय), कश्यप, कौशिक, गर्ग, गौतम, मुदगल, शाण्डिल्य, कौत्स, भार्गव, वत्स एवं धौम्य हुए और कीर्तिमती नामक एक योगिनी पतिधर्म पालन करने वाली कन्या। कीर्तिमती का विवाह भारद्वाज वंशज काम्पिल्य नगर के राजा अणुह से हुआ। महान योगी ब्रह्मदत्त जी को कीर्तिमती ने जन्म दिया। हरिवंश पुरण में शुकदेव जी का वंश विस्तार बताया गया है। शुकदेव जी के संतान होने के सम्बंध में भ्रांति है।
शुकदेव जी के विवाह एवं उनकी संतान के सम्बंध में देवी भागवत में निम्न वृत्तांत दिया गया है-
“पितरों की एक सौभाग्यशाली कन्या थी। इस सुकन्या का नाम पीवरी था। योग पथ के पथिक होते हुए भी शुकदेव जी ने उसे अपनी पत्नी बनाया। उस कन्या से उन्हें चार पुत्र हुए कृष्णख् गौर प्रभ, भूरि और देवश्रुत। कीर्ति नाम की एक कन्या हुई। परम तेजस्वी शुकदेव जी ने विभ्राज कुमार महामना अणुह के साथ इस कन्या का विवाह कर दिया। अणुह के पुत्र ही ब्रह्मदत्त हुए। शुकदेव जी के दोहित्र ब्रह्मदत्त बड़े प्रतापी राजा हुए। साथ ही ब्रह्म ज्ञानी भी थे। नारद जी ने उन्हें ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया था।
हरिवंश पुरण में शुकदेव जी की संतान के सम्बंध में जो वर्णन किया गया है उसके अनुसार-
स तस्यां पितृकन्यायां पीवयां जनयिष्यति।
कन्यां पुत्रांश्च चतुरो योगाचार्यान महाबलान।।52।।
कृष्णं गौरं प्रभुं शम्भुं कृत्वीं कन्यां तथैव च।
ब्रह्मदत्तस्य जननीं महिर्षी त्वणुहस्य च।।53।।
अर्थ: – वे ही शुकदेव पितरों की कन्या पीवरी में कृष्ण, गौर, प्रभु और शम्भु इन चार महाबली योगाचार्य पुत्रों तथा ब्रह्मदत्त की जननी और अणुह की पत्नी कृत्वी नामवाली कन्य को उत्पन्न करेंगे।”
पुराणें में यह आख्यान भी आता है – वृहस्पति जी ने ब्रह्मा जी के पास जा शुकदेव जी का किसी योग्य कन्या से विवाह करने की प्रार्थना की। उन्होंने वर्हिषद की कन्या पीवरी को, इनके योग्य मान इसके साथ विवाह करने की आज्ञा दी। वर्हिषद “स्वर्ण” में वभ्राज नाम के सुंदर लोक में रहने वाले पितरों के मुखिया थे, जिनकी पूजा सभी देवगण, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, नाग, सुपर्ण और सर्प भी करते हैं।” वर्हिषद को ऋषि पुलस्त्य के आशीर्वाद से एक पुत्री प्राप्त हुई थी। जिसका नाम पीवरी रखा गया। इस कन्या ने ब्रह्माजी की तपस्या की थी और ब्रह्माजी से उसने वेदों के ज्ञाता, ज्ञानी, योगी और अपने योग्य वर पाने का वरदान पाया था। ब्रह्माजी की आज्ञा से इसी पीवरी नामक कन्या के साथ शुकदेवजी ने ब्राह्म विधि से विवाह किया। इस पीवरी को योग-माता और धृतवृता (पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली) शब्दों से भी पुकारा जाता है। विवाह के समय शुकदेव जी की आयु 25 वर्ष की थी। शुकदेव जी गृहस्थ आश्रम में रहकर तपस्या और योग मार्ग का अनुसरण करने लगे।
राजा परीक्षित को अपने श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई व उसका उद्धार किया। वेदों के प्रचार के साथ-साथ शुकदेव जी युगद्रष्टा भी थे। वे गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए पत्नी, पुत्रों के भी सम्यक रूप से पालक थे।
कूर्म पुराण के अनुसार शुकदेव जी के पांच पुत्र और एक पुत्री थी।
शुकस्याsस्याभवन् पुत्रा: पञ्चात्यन्ततपस्विन:।
भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: कृष्णो गौरश्च पण्चम:।
कन्या कीर्तिमतती चैव योगमाता धृतवृता।।(कूर्म पुराण)
शुकदेव जी के महान तपस्वी पांच पुत्र थे। जिनके नाम भरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर थे और एक कन्या जिसका नाम कीर्तिमती था जो योगिनी और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली थी।
सौर पुराण के अनुसार-
भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: कृष्णो गौरश्च पण्चम:।
कन्या कीर्तिमती नाम वंशायैते प्रकीर्तिता:।। (सौर पुराण)
भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण और गौर नाम के पांच पुत्र थे। तथा कीर्तिमती नामक एक कन्या थी। ये सब ही अपने वंश की कीर्ति बढ़ाने वाले थे।
कन्या कीर्तिमती भारद्वाज वंश काम्पिल्य नगर के नृप अणुह जी को ब्याही गई थी। महान योगी और सब जीवों को बोली समझने वाले ब्रह्मदत्त जी का जन्म इसी कीर्तिमती के उदर से हुआ था।
ब्रह्माण्ड पुराण में शुकदेव जी के किस-किस नाम वाले कितने पुत्र-पुत्री हुए- उसका वर्ण निम्न प्रकार है-
श्लोक-
काल्यां पराशराज्जज्ञे कृष्णद्वैपायन: प्रभु:।
द्वैपायनादरण्यां वै शुको जज्ञे गुणान्वित।। ।।92।।
भूरिश्रवा प्रभु: शम्भु: कृष्णौ गौरश्च पण्चम:।
कन्या कीर्तिमती चैव योगमाता धृतव्रता।। ।।93।।
जननी ब्रह्मदत्तस्य पत्नी सात्वणुहस्य च।
श्वेता कृष्णाश्च गौराश्च श्यामा धूम्रास्तथारुणा।। ।।94।।
नीलो वादरिकश्चैव सर्वे चैते पराशरा:।
पाराशराणामष्टौ ते पक्षा: प्रोक्ता महात्मनाम्।। ।।95।।
ब्रह्माण्डपुराण पाद 3 अध्याय 9
अर्थ- परशर मुनि से काली(सत्यवती) में कृष्ण- द्वैपायन उत्पन्न हुए। कृष्णद्वैपायन से आरणी में सर्वगुण सम्पन्न शुकदेव उत्पन्न हुए। शुकदेव से पीवरी से भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भु, कृष्ण, गौर और कीर्तिमती कन्या जो अणुह ऋषि को ब्याही थी; जिसके ब्रह्मदत्त उत्पन्न हुआ (जो योग शास्त्र का प्रधान आचार्य था) और श्वेत, कृष्ण, गौरश्याम, धूम्र, अरुण, नील बादरि ये पुत्र और उत्पन्न हुए।
लिंग पुराण में भी शुकदेव जी के 12 पुत्र एवं एक कन्या होने का प्रमाण है-
श्लोक-
द्वैपायनोह्यरण्यां वै शुकमुत्पादयत्सुतम्।
उपमन्यू च पीवर्यां विद्धी मे शुक सूनव:।।
भूरिश्रवा: प्रभु: शम्भु: कृष्णो गौरस्तु पञ्चम:।
कन्या कीर्तिमती चैव योगमाता धृतव्रता।।
श्वेत: कृष्णश्च गौरश्च श्यामो धूम्रस्तथारुण:।
नीलो वादरिकश्चैव सर्वे चैते पाराशरा:।।
लिंग महापुराणे अध्याय 65।
अर्थ- व्यास द्वैपायन से अरणी में शुक उत्पन्न हुए। शुक से पीवरी से 1. उपमन्यू 2. भूरिश्रवा, 3. प्रभु, 4. शम्भु 5. कृष्ण 6. गौर 7. कीर्तिमती कन्या और श्वेतकृष्ण, 8. गौरश्याम, 9. धूम्र, 10. अरुण, 11. नील, 12. बादरि ये पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार अन्य पुराणों में भी लिखा है।
डॉ योगानन्द गिरी बुढेनाथ मिर्ज़ापुर