नगर की प्रसिद्ध वैश्या की गली से एक योगी जा रहा था कंधे पर झोली डाले। योगी को देखते ही एक द्वार खुला सामने की महिला ने योगी को देखा। ध्यान की गरिमा से आपूर, अंतर मौन की रश्मियों से भरपूर। योगी को देखकर महिला ने निवेदन किया गृह में पधारने के लिए। उसके आमन्त्रण में वासना का स्वर था।
योगी ने उत्तर दिया,” देखती नहीं झोली में दवाएं पड़ी हैं, गरीबों में बांटनी हैं उन्हें रोगों से मुक्त करना है। हमारे और तुम्हारे कार्य में अंतर है तुम रोग बढ़ाती हो, हम रोग मिटाते हैं। तुम शरीर और वासना की भाषा बोलती हो, हम सत्य और बोध की।”
योगी की बात पर क्रोधित होकर वैश्या बोली,” योगी तुम्हें पता है। मेरे रंग रूप के पीछे सारा शहर दिवाना है। मुझे पाने के लिए वह अपने जीवन की भरपूर धन संपदा लुटाने को तत्पर रहते हैं। मैं स्वयं को तुम्हारे आगे समर्पित कर रही हूं और तुम इंकार कर रहे हो।”
योगी ने कहा,” मुझे तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार है परंतु अभी नहीं। मैं आऊंगा और जरूर आऊंगा।”
कहते हुए योगी चला गया। समय बीतता गया, महिला वृद्ध हो गई। अब उसे पाने के लिए कोई न आता था। तबले की थाप, घुंघरू की आवाज सुनाई नहीं देती थी बल्कि कराहने की आवाज आती थी।
योगी उस गली से गुजर रहा था आवाज सुनी पीड़ा से करहाने की। अंदर प्रवेश करके देखा एक वृद्धा जिसे कोढ़ हो गया था। दर्द से तड़प रही थी।
योगी ने कहा,” मैं आ गया हूं। कहा था न मैं आऊंगा।”
योगी ने झोली खोली,” उसके घाव साफ किए दवा लगाई और कहा चिन्ता न करो जल्दी ठीक हो जाओगी।”
सन्यास लेने से पूर्व योगी डॉक्टर था। सन्यास लेकर भी उसने सेवा का कार्य न छोड़ा था। सन्यास का अर्थ कर्म त्याग नहीं, कर्ता भाव का त्याग है। योगी नियमित रूप से महिला की सेवा करने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गई। जो कभी सुख के पीछे भागती थी आज योगी की कृपा से आनंद में जाग रही है।
इस शरीर की दो संभावनाएं हैं। यदि सुख लोलुपता में बह गया तो सुख के बाद दुख का नरक झेलना पड़ेगा और यदि सेवा का सूत्र मिल गया तो जीवन स्वर्ग की सुंगध से आपूर हो जाएगा।
आप का चुनाव है, आप बीच में खड़े हैं। दोनों द्वार खुले हैं, नर्क का भी, स्वर्ग का भी। सुख लोलुपता का, सेवा का भी। आप जिसमें जाना पसंद करें, चले जाएं। यह ध्यान रहे नर्क के द्वार पर सजावट बहुत है लेकिन परिणाम में पीड़ा और पश्चाताप है। स्वर्ग के द्वार पर कोई श्रंगार नहीं है मात्र सत्य की सुंगध है। परिणाम में आनंद है।
नाशवान शरीर को अविनाशी का द्वार बना लो। बाहर आओ तो प्रत्येक क्रिया के द्वारा सेवा के फूल खिलाओ। अंदर जाओ तो अक्रिय के द्वारा आनंद की गंगा में नहाओ। डॉ. योगानन्द गिरी
श्री बूढ़ेनाथ विजयतेतराम