13वें और अन्तिम ज्योतिर्लिंग तथा सत्यकाशी तीर्थ क्यों है-

13वें और अन्तिम ज्योतिर्लिंग तथा सत्यकाशी तीर्थ क्यों है-
1.काशी मोक्षदायिनी है तो जीवन दायिनी काशी कहाँ गयी ? जीवनदायिनी काशी ही सत्यकाशी है जहाँ से पाँचवाँ वेद-कर्मवेद समाहित जीवनशास्त्र – विश्वशास्त्र व्यक्त हुआ है। यह सत्यकाशी क्षेत्र, वाराणसी- विन्ध्याचल- शिवद्वार- सोनभद्र के बीच का क्षेत्र है। 2.प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि मास शिवरात्रि तथा फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि की रात्रि महाशिवरात्रि कहलाती है। मनुष्य के जन्म के बारहवीं तिथि के संस्कार को बरही तथा शरीर से मुक्त होने के तेरहवीं तिथि के अन्तिम संस्कार को तेरहवीं कहते हैं अर्थात तेरह का अंक शिवशंकर का प्रतीक है। तब तेरहवां ज्योर्तिलिंग कहाँ है क्योकि केवल द्वादस ज्योतिर्लिंग ही हम सब जानते हैं, इस तेरहवें ज्योतिर्लिंग की स्थापना ही सत्यकाशी तीर्थ का महत्व है। 3.आदि शंकराचार्य ने चार वेदों को प्रतीक मंें लेते हुए चार पीठ की स्थापना की जिस पर चार शंकराचार्य विद्यमान हैं और अब अन्तिम शास्त्र विश्वशास्त्र में समाहित पाँचवें वेद – कर्मवेद के साथ पाँचवें पीठ की आवश्यकता है जो सत्यकाशी पीठ है। 4.समस्त विश्व को अणु रूप में धारण करने वाले देवता को विष्णु कहते हैं और समस्त विश्व को तन्त्र के रूप में धारण करने वाले देवता को शिव कहते हैं। विष्णु, सार्वभौम आत्मा के प्रतीक हैं और शिव, सार्वभौम सिद्धान्त के प्रतीक हैं। आत्मा अदृश्य है, सिद्धान्त दृश्य है अर्थात विष्णु के ही दृश्य रूप शिव हैं। इसलिए ही सत्यकाशी तीर्थ में स्थापित होने वाले 13वें ज्योतिर्लिंग के प्रतीक में विष्णु का प्रतीक सुदर्शन चक्र और शंख समर्पित है।
भोगेश्वर रुप: कर्मज्ञान का विश्वरुप
सत्य-धर्म-ज्ञान या सार्वभौम आत्मा प्रारम्भ में अव्यक्त व्यक्तिगत प्रमाणित है तो अन्त में दृश्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त का रुप लेकर ही सार्वजनिक प्रमाणित होगा। जिसके द्वारा यह प्रमाणित हो जायेगा कि सम्पूर्ण जगत में जो भी गतिशील है, वास्तव में वह गतिशील नहीं बल्कि उसके पीछे जो सत्य-सिद्धान्त है उसके द्वारा ही सिद्धान्तानुसार गतिशील है। इस सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला मानव ही है अर्थात् भले ही वह सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त होता है लेकिन वह विचार नहीं बल्कि सार्वजनिक प्रमाणित सत्य-सिद्धान्त ही होगा। इस प्रकार किसी भी विषय से जुड़ना योग है और मैं या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या शिव से जुड़ना योगश्वर है। पाश्चात्य का समस्त कार्यप्रणाली भोग पर आधारित है। जिस प्रकार ईश्वर जीवन का एक सत्य है। इसी प्रकार भोग भी जीवन का एक सत्य है। क्योंकि कोई भी एक क्षण कर्म किये बिना नहीं रह सकता फिर कर्म होने पर भोग तो निश्चित है। इस प्रकार किसी भी विषय पर कर्म करना भोग है और मैं या आत्मा या ब्रह्म या शिव या ईश्वर से जुड़कर भोग या कर्म करना भोगेश्वर है। योगश्वर का अर्थ-अदृश्य सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का विश्वरुप है तथा भोगेश्वर का अर्थ योगेश्वर का दृश्य रुप अर्थात् अदृश्य-सत्य-धर्म-ज्ञान या आत्मा का दृश्य रुप कर्म ज्ञान अर्थात् भोग ज्ञान अर्थात् सत्य-सिद्धान्त है। योगेश्वर विश्व ज्ञान का प्रतीक है तो भोगेश्वर विश्व कर्मज्ञान अर्थात् सत्य जीवन प्रणाली का प्रतीक है। भोगेश्वर, योगेश्वर का ही दृश्य रुप है। भोगेश्वर में योगेश्वर समाहित है। श्रीकृष्ण ने महाभारत में गीता उपदेष के समय अपने योगेश्वर रुप अर्थात् ज्ञान के विश्वरुप की व्याख्या कर अर्जुन को अनासक्त कर्म की ओर प्रेरित किये थे लेकिन कहीं भी उन्होंने उस कर्म ज्ञान की व्याख्या नहीं की जिसके आधार पर वे धर्म की स्थापना के लिए उपलब्ध साधनों पर अपनी योजना तैयार किये अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण में योगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में था। वेदान्त की शाखाओं में कर्मवेदान्त अन्तिम शाखा है जो सबसे महत्वपूर्ण शाखा भी है जिसके बिना मानव संसाधन विकास, प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, मानवाधिकार इत्यादि पर खर्च बढ़ता ही जायेगा और पूर्ण स्वस्थ समाज, लोकतन्त्र, उद्योग और मानव का निर्माण भी नहीं हो पायेगा। ज्ञान मार्ग से मानव को पूर्णता एवं विज्ञान के साथ उपयोगिता की आवश्यकता के कारण ही समयानुसार यह ज्ञान भोगेश्वर रुप में व्यक्त हुआ है। मानव का मानक, विश्वमानव के भोगेश्वर रुप में योगेश्वर रुप चरम विकसित अव्यक्त अवस्था में तथा भोगेश्वर रुप चरम विकसित व्यक्त अवस्था में है जिसका प्रमाण ही विश्वमानव की सम्पूर्ण कार्य प्रणाली और उसका व्यक्त सार्वजनिक प्रमाणित सत्य सिद्धान्त है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण ही विश्वमानव द्वारा स्वयं अपने नाम, जन्म एवं जन्म स्थान, निवास, रिस्तेदार, मित्र, कर्मक्षेत्र, देश, राज्य क्षेत्र, धर्मक्षेत्र, राजनीतिक संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि पर ईश्वरत्व भाव से भोग या कर्म है। जिससे द्विपक्षीय महानता तो बढ़ती ही है और भोगकर्ता तथा भोग विषय दोनों ही एकाकार होकर ईश्वर में लीन हो जाते हैं। भौतिकता युक्त पाश्चात्य का आध्यात्मिकता युक्त प्राच्य का सामंजस्य स्थापित कर कर्म करना ही अब इक्कीसवीं सदी और भविष्य की जीवन प्रणाली है अर्थात् भोगेश्वर रुप ही भविष्य की जीवन प्रणाली है। यदि यह सम्भव हो कि एक चेतना युक्त परमाणु स्वयं अपने इलेक्ट्रानों को घटा-बढ़ा सके तो वह परमाणु सभी तत्वों के गुणांें या प्रकृति को व्यक्त करने लगेगा। ऐसी स्थिति में उस जटिल और मूल परमाणु को किसी विशेष तत्व का परमाणु निर्धारित करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम् एवं सर्वोच्चतम अन्तिम स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी। मानव वह चेतना युक्त आत्मा है जो स्वयं अपने मन की उच्चता और निम्नता पर आवश्यकता एवं समयानुसार नियन्त्रण कर सकता है और सभी तरह के व्यक्तियों के गुणों या प्रकृति को व्यक्त कर सकता है। ऐसी स्थिति में उस जटिल व्यक्ति को किसी विशेष प्रकृति का व्यक्ति निर्धारण करना असम्भव हो जायेगा। फिर उसे ”एक में सभी, सभी में एक“ कहना पड़ेगा अर्थात् उसकी निम्नतम पशुमानव और उच्चतम विश्वमानव स्थिति ही उसकी निर्धारण योग्य प्रकृति होगी। जिस प्रकार अदृश्य काल से आत्मीय काल की अवस्था में स्थित भगवान श्रीकृष्ण एक जटिल और अनिर्धारण योग्य चरित्र थे, जिनको पूर्ण रुप में स्वीकार या आतमसात् करना साधारण मानव के लिए कठिन है। सिवाय इसके कि- ‘‘एक में सभी, सभी में एक’’ या ”एक साधारण नागरिक, एक सर्वोच्च और अन्तिम मानव“। इस प्रकार ऐसे व्यक्ति स्वयं अपने उद्देश्यों के विग्रह हो जाते हैं और स्वयं उनका जीवन मानक नहीं बन पाता सिर्फ उनका ज्ञान ही मानक होता है। अवतारों में उपरोक्त अवस्था अवश्य विशेष रुप से पायी जाती है। जिससे वे उचित समय के आने तक स्वयं को व्यक्त नहीं होने देते और विभिन्न मन स्तर के क्रियाकलाप करते हुए वे उन क्रियाकलापों के फल से मुक्त रहकर लीला करते रहते हैं। लीला का अर्थ उन्हीं क्रियाकलापों से होता है। जो लीला कर्ता का वास्तविक चरित्र या कर्म नहीं होता परन्तु वे अवश्य ऐसा करते हैं। क्योंकि शरीर धारण की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इस प्रकार आत्मीय काल अवस्था में स्थित अर्थात् स्वयं अपनी अन्तः एवं वाह्य प्रकृति को नियन्त्रित कर उचित समय आने पर वे स्वयं व्यक्त होते हैं और व्यक्त होने तक का जीवन हँसते, खेलते हुए ध्यान से युक्त होता है। जिससे वे बखूबी दूसरों के प्रकृति को जानकर उसके कर्मानुसार फल, सलाह और सचेत करते रहते हैं। अन्ततः अपने उद्देश्यों के लिए विरोधी और समर्पण भक्ति के रुप में उनका प्रयोग करते हैं। डॉ योगानन्द गिरी मिर्ज़ापुर 9453198953