धर्म क्या है और धर्म की परिभाषा क्या हैं.

*धर्म क्या है और धर्म की परिभाषा क्या हैं..*?
क्या आप जानते हैं कि…. धर्म क्या है और धर्म की परिभाषा क्या हैं…….?????? आज के बहुत सारे हिन्दू *””धर्म”’* का अर्थ ही नहीं जानते हैं और अज्ञानतावश वे….. धर्म, संप्रदाय और मजहब को एक ही समझ लेते हैं……. और, उससे भी दुखद तो ये है कि…
धर्म को ना जानने के कारण बहुत सारे लोग……”” सभी धर्म एक समान”” सरीखे नारे को बुलंद करते आ जाते हैं…!
इसीलिए… ऐसे तथाकथित धर्मनिरपक्षो को समुचित उत्तर देने हेतु सबसे पहले हमें ये समझना होगा कि…. आखिर “धर्म” है क्या….और, धर्म की वास्तविक परिभाषा क्या है….?????
*””धर्म””* संस्कृत भाषा का शब्द हैं… “धृ” धातु से बना हैं….. जिसका अर्थ होता है…. ” धारण करने वाली”” इस तरह हम कह सकते हैं कि….. “धार्यते इति धर्म:” …….अर्थात, *जो धारण किया जाये वह धर्म हैं,,,,।* दूसरे शब्दों में …. *लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु ……सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना ही धर्म हैं….।*
अगर हम इतनी तकनीकी बातों को छोड़ कर सीधे-सीधे कहें तो….. हम यह भी कह सकते हैं कि …. *मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल ……..जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं ……..वही धर्म हैं।*
मिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में भी …….धर्म के लक्षण का विवरण हैं.. जो बताता है कि….. लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं। साथ ही….. वैदिक साहित्य में धर्म……… वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं…… जैसे कि …… जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं ………और , प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं। उसी प्रकार …. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि….. *धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:* *”धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं” ६/९* *अर्थात …….* धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं…….. आचार:परमो धर्म” १/१०८ अर्थात सदाचार परम धर्म हैं ( ध्यान रहे कि…. “आचार:परमो धर्म” को ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने बदल कर ……… “”अहिंसा परमो धर्मः”” बना दिया है ) इसी तरह…. महाभारत में भी धर्म को समझाते हुए लिखा गया हैं कि … “धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:” अर्थात ……… *जो धारण किया जाये और जिसे प्रजाएँ धारण की हुई हैं…….. वह धर्म हैं।*
सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि…. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महामुनि कणाद ने धर्म का लक्षण बताते हुए कहा है कि….. यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म: अर्थात….. *जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।*
जबकि, मजहब का मतलब …….. धर्म के बिलकुल ही विपरीत है….. और, मजहब किसी एक पीर-पैगम्बर के द्वारा स्थापित और उसी के सिद्धांतों की मान्यता को लेकर बनाए जाते हैं…. जिसका प्रमुख मकसद जनकल्याण नहीं बल्कि….. रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि……… किसी भी प्रकार का प्रोपोगंडा कर अपने मजहब में लोगों की संख्या बढ़ाना होता है…. ताकि, वे उस समुदाय के अपने सिद्धांतों के हिसाब से .. भेड़ों की तरह हाँक हांक सकें…..! इसी तरह…. संप्रदाय को भी धर्म की संज्ञा देना उचित नहीं है …. क्योंकि… संप्रदाय …. धर्म और मजहब के अंदर के भाग होते हैं….. सिर्फ , उनकी मान्यताओं और दर्शन में अंतर होता है…! अंत में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि….. एक हिन्दू सनातन धर्म ही उपरोक्त “”धर्म”” की परिभाषा पर खरा उतरता है…. जो हमें , *धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध … आदि के बारे में बताता है…*
ना कि…. किसी को धर्म परिवर्तन कैसे करवाना है.. अथवा, जेहाद कैसे चलाना है … इस बारे….! इसीलिए मित्रो…. सच को जाने …. क्योंकि, सच ही वो प्रकाश है जो….. मनहूस सेक्यूलरों द्वारा फैलाये प्रोपोगंडा रूपी इस अन्धकार को दूर कर ….
हमारे हिन्दू सनातन धर्म के अस्तित्व की रक्षा में सहायक होगा…!
हमेशा एक बात याद रखें कि…. अन्याय और पाप को सहने वाला भी उतना ही दोषी होता है…. जितना अन्याय और पाप करने वाला….! इसीलिए…. हर चीज की सच्चाई को जानते हुए ….अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखो…. और.., दहाडो हिन्दुओं ….??
*जय श्री राम*?? डॉ योगानन्द गिरी